एक रैंक, एक पेंशन (ओआरओपी) के मसले पर हुए विरोध प्रदर्शन ने सेना और राजनेताओं तथा नौकरशाही के बीच व्याप्त आपसी विश्वास को साफतौर पर उजागर कर दिया। सरकार के लिए यह दोहरी पराजय थी। उसे समझौते की कीमत 18,000-22,000 करोड़ रुपये के रूप में चुकानी होगी जबकि पूर्व सैनिकों की मांगें खत्म नहीं होने वाली। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार ओआरओपी आंदोलन की मूल प्रवृत्ति को समझने में नाकाम रही। यह पैसे की मांग नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के समक्ष भेदभाव को लेकर विरोध की अभिव्यक्ति अधिक है। कई वरिष्ठï सैनिकों ने मुझसे कहा है कि अगर आईएएस और विदेश सेवा अधिकारियों (आईएफएस) को दिए जाने वाले ओआरओपी लाभ समाप्त कर दिए जाएं तो वे भी यथास्थिति स्वीकार करने को तैयार हैं।
सशस्त्र बलों के चर्चा समूह में एक और मांग आकार लेने लगी है जो कहीं अधिक तार्किक और उचित है। यह मांग गैर कार्यात्मक उन्नयन (एनएफयू) से संबंधित है। सरकार ने सेना को तो एनएफयू देने से इनकार कर दिया जबकि कई अन्य शीर्ष सेवाओं मसलन रक्षा शोध एवं विकास सेवा, सीमा सड़क संगठन, भारतीय आयुध फैक्टरी सेवा आदि में इसे प्रदान कर दिया गया। एनएफयू का अर्थ यह है कि अगर किसी खास बैच का आईएएस अधिकारी (एक ही साल में सेवारत होने वाला अधिकारी) एक खास रैंक तक पदोन्नति पाता है तो उसके बैच के सभी लोगों को दो साल बाद स्वत: उस स्तर के वेतनभत्ते मिलने लगेंगे। एनएफयू का अर्थ यह है कि अगर भले ही उक्त सभी अधिकारी काम पहले वाले पदों पर करते रहें लेकिन उनको अपने समकक्ष के समान उच्च वेतनमान मिल जाएगा। आखिर क्यों नियम बनाकर अपने हितों की रक्षा करने वाले आईएएस अधिकारियों ने खुद को एनएफयू के दायरे में नहीं रखा। इसलिए क्योंकि उसे इसकी जरूरत नहीं। हर आईएएस अधिकारी सरकार के उच्चतम वेतनमान तक पहुंच ही जाता है और उसे प्रतिमाह 80,000 रुपये का वेतन मिलता ही है।
अगर कोई आईएएस अधिकारी पदोन्नति के लिए केंद्र सरकार के पैनल में नहीं भी आ पाता तो भी उसे अपने राज्य कैडर में समयानुसार पदोन्नति मिलती रहती है। जब वह अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर पहुंचता है तब वह स्वत: उच्चतम वेतनमान का अधिकारी हो जाता है। आईएफएस अधिकारी भी इसी तरह लाभान्वित होते हैं। सेना के अधिकारी इस बात को लेकर निराशा जताते हैं कि आईएएस और आईएफएस अधिकारियों को पदोन्नति मिलती रहती है, वह भी बिना उनकी योग्यता अथवा प्रदर्शन का आकलन किए।
आईएएस अधिकारियों ने छठा वेतन आयोग लागू होने के बाद एक आदेश जारी कर दिया जिसके मुताबिक उच्चतम वेतनमान तक पहुंचने के बाद वे स्वत: ओआरओपी के हकदार हो जाएंगे। इसका अर्थ हुआ कि जब-जब वेतन आयोग वेतन भत्तों में संशोधन करेंगे उनकी पेंशन भी बढ़ती जाएगी। सेना की बात करें तो 99 फीसदी अधिकारी उच्चतम वेतनमान तक नहीं पहुंच पाते।
उनके लिए हर वेतन आयोग अलग से मामूली पेंशन वृद्घि की व्यवस्था करता है। आईएएस और आईएफएस अधिकारियों के लिए उच्चतम वेतनमान और सबके लिए ओआरओपी की व्यवस्था सेना के लिए दोहरे गुस्से की वजह बनती है क्योंकि उनकी पदोन्नति व्यवस्था में गिनेचुने ही उच्चतम वेतनमान तक पहुंच पाते हैं। एक बैच के सैकड़ों सैनिक, नौसैनिक और वायुसैनिक अधिकारियों में से केवल 30-40 ही कर्नल बन पाते हैं। जबकि 10 ब्रिगेडियर (नौसेना और वायुसेना में समकक्ष), 4-5 मेजर जनरल और एक या दो लेफ्टिनेंट जनरल बन पाते हैं। सेना जहां इस पदानुक्रम को अनिवार्य मानती है, वहीं अधिकारी मानते हैं कि उन्हें एनएफयू के दायरे में लाया जाना चाहिए ताकि पदोन्नति न पा सकने वालों को भी वेतन और पेंशन तो मिल सके। एनएफयू से बाहर रहने के स्पष्टï नुकसान हैं।
सेना मुख्यालय में अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में पदस्थ मेजर जनरल को अपने अधीन काम करने वाले असैन्य निदेशक से कम वेतन मिलता है। अगर मेजर जनरल अपने उसी पद से सेवानिवृत्त हो जाए तो उसे अपने असैन्य अधीनस्थ की तुलना में 5,000 रुपये तक कम पेंशन मिलेगी। भले ही वह मेजर जनरल की तुलना में कम नौकरी करके सेवानिवृत्त हुआ हो। अ वर्ग के केंद्रीय सेवा अधिकारी को यह आश्वस्ति रहती है कि वह उच्च प्रशासनिक वेतनमान पाएगा जबकि सेना के अधिकारियों में से बमुश्किल एक फीसदी को ऐसा वेतनमान मिल पाता है। इन बातों के बावजूद रक्षा मंत्रालय ने सैन्य बलों की एनएफयू की मांग को सन 2009-10 में सिरे से खारिज कर दिया। पुलिस सेवा को एनएफयू देकर जबकि सेना के लिए इसे ठुकराकर समता के उस सिद्घांत को भी ठुकरा दिया गया जिसे तीसरे, चौथे और पांचवें वेतन आयोग ने स्थापित किया था। रक्षा मंत्रालय ने यह कहते हुए मांग खारिज कर दी कि सेना की सेवा परिस्थितियां असैन्य सेवाओं से अलग होती हैं। मंत्रालय ने कहा कि उनको पहले ही सैन्य सेवा भुगतान के रूप में कठिन कार्य परिस्थितियों का हर्जाना मिलता है। अंतत: मंत्रालय ने यह कहा कि एनएफयू संगठित अ वर्ग की सेवाओं के लिए है जबकि सेना इसमें नहीं आती।
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी से पता चला कि तीनों सेनाओं के प्रमुखों द्वारा पारित इस याचिका पर संयुक्त सचिव स्तर के एक अधिकारी ने विचार किया था। बड़ा राजनीतिक सवाल यह है कि एनएफयू की मांग क्या स्वरूप लेगी? पेंशनयाफ्ता लोग नई दिल्ली में विरोध प्रदर्शन के लिए एकत्रित हो गए। लेकिन सेवारत अधिकारी भला कैसे एनएफयू की मांग करेंगे? अगर केंद्र इन जटिल अंत:संबंधित मांगों से हताश है तो इसका दोष आईएएस के लिए अपवाद बनाए जाने को ही देना होगा। क्या सरकार पूर्व जैसी यथास्थिति बना सकती है? इतने कारकों के बीच सही संतुलन हासिल करना तो बहुत मुश्किल नजर आता है।
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COMMENTS
I can't be leave on orop notification be benfit for premature pensign.
Everybody is worried about officer and nobody having time for pbor. The officers always think about themself. They are selfish, they never think about pbor welfare. I request to indinan government that please think about the mentality of armed forces officer, they are very cunning,
our system is sick never think about the PBOR the dissatisfaction among the Officer and Jawan is too much for entitlement and benefits but our system is failed to understand .
What about NFFU for PBOR ( personnel below officer rank ) ? PBOR's are not human beings? why every discussion for officers only?