एक रैंक एक पेंशन का रक्षा क्षेत्र पर असर
नितिन पई / September 17, 2015
नितिन पई / September 17, 2015
एक रैंक, एक पेंशन लागू होने के बाद रक्षा खर्च में बढ़ोतरी होने का अर्थ यह है कि सेना के आधुनिकीकरण के काम में पूंजी की और अधिक आवश्यकता होगी। विस्तार से बता रहे हैं नितिन पई
अब जबकि मोदी सरकार ने एक रैंक एक पेंशन (ओआरओपी) को लागू करने का फैसला कर लिया है तो यह आवश्यक हो चला है कि हम रक्षा नीति और तैयारी के लिहाज से इसके निहितार्थ का आकलन करते चलें। इसकी वजह से न केवल केंद्र सरकार के व्यय में दो फीसदी की अनुमानित बढ़ोतरी होगी बल्कि यह सर्वोच्च रक्षा नेतृत्व से लेकर संभावित सैनिक, और विदेशी हथियार आपूर्तिकर्ता से लेकर घरेलू रक्षा नवाचार करने वाले तक सबके लिए प्रोत्साहन में तब्दीली आ जाएगी। हम इस स्तंभ में आने वाले काफी समय तक इन विषयों का विश्लेषण करते रहेंगे।
इस आलेख में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि ओआरओपी का देश के सैन्य बलों के भविष्य की रूपरेखा पर क्या संभावित असर हो सकता है। इसकी बदौलत रक्षा खर्च में 20,000 से 25,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा। सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद वेतनमान में होने वाला सुधार इसमें और अधिक इजाफा कर देगा। इससे रक्षा नीति के समक्ष तीन मोर्चों पर असुविधा पैदा होगी: वेतन भत्ते, रक्षा क्षेत्र की तैयारी का स्तर और राजकोषीय संतुलन। हम एक साथ इन तीनों में अत्यधिक इजाफा नहीं कर सकते। ओआरओपी के कारण आर्थिक बोझ बहुत तेजी से बढ़ेगा और अगर इसके चलते रक्षा तैयारी में समझौता नहीं किया गया तो राजकोषीय संतुलन के मोर्चे पर हमें परेशानी उठानी पड़ेगी। इसके लिए हमें कर्ज लेना होगा।
हम इस तीन स्तरीय दुविधा से पलायन नहीं कर सकते। हां, हम इसके प्रभाव को कम जरूर कर सकते हैं: इसका सबसे बढिय़ा तरीका है तेज आर्थिक वृद्धि। अगर हम सतत रूप से तेज आर्थिक विकास कर सकें तो हमें ओआरओपी के कारण बढ़े हुए राजकोषीय बोझ का प्रभाव कम करने में मदद मिलेगी। सेवानिवृत्त सैनिकों और उनके समर्थकों की ओर से अगर सुधार और आर्थिक उदारीकरण की मांग आती है तो भविष्य के वित्त मंत्रियों की ओआरओपी को सीमित करने की चिंता कम हो जाएगी।
ओआरओपी के आगमन से पहले भी दो दशकों तक तेज आर्थिक विकास के चलते अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में श्रम अपेक्षाकृत महंगा हो चुका है। जैसा कि अजय शुक्ला ने कुछ दिन पहले लिखा था कि ओआरओपी के बाद रक्षा खर्च का 53 फीसदी हिस्सा कार्मिकों पर खर्च होगा। सन 1953 में अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभालने के तत्काल बाद आइजनहावर को बढ़ते रक्षा खर्च की मुश्किल का सामना करना पड़ा था। यह शीतयुद्ध के चलते पैदा हुआ था और इसके नियंत्रण से बाहर होने के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा था। उस वक्त उन्होंने जो कदम उठाया वह भविष्य के नेताओं के लिए नजीर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वैसा कुछ करने पर विचार कर सकते हैं।
आइजनहावर की नीति में अतिरिक्त श्रम शक्ति के खर्च में सामरिक हथियारों में निवेश पर अनिवार्य जोर दिया गया। यूरोप और एशिया में भारी भरकम सेना बिठाने के बजाय अमेरिका परमाणु हथियारों, खुफिया ऑपरेशनों और अपने सहयोगियों पर भरोसा करने लगा। व्यापक विरोध के भय ने तत्कालीन सोवियत संघ को आगे बढऩे से रोके रखा। दूसरे शब्दों में कहें तो आइजनहावर प्रशासन ने श्रम का विकल्प पूंजी से तैयार किया। अर्थात उसने सैनिकों के बजाय परमाणु हथियारों और आपूर्ति व्यवस्था पर जोर दिया। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें लगा कि श्रम शक्ति की लागत देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुुंचा रही है। आजइनहावर को भरोसा था कि अमेरिकी आर्थिक विकास की मजबूती सोवियत संघ के साथ संघर्ष में काफी अहम थी। क्या भारत भी वही रास्ता अपना सकता है? क्या हम भी अधिकांश सैनिकों की जगह परमाणु हथियारों, मिसाइलों, विमानों, पनडुब्बियों आदि पर भरोसा कर सकते हैं?
आइजनहावर की तरह हमें भी समझना होगा विरोधी कभी इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि हम केवल उनके सीमा पार करने अथवा आतंकी घुसपैठ करने की स्थिति में परमाणु हथियारों का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे में एक पूरे देश को नष्ट कर सकने वाले हथियार होने के बावजूद हमें सीमाओं की रक्षा करने के लिए जवानों की जरूरत पड़ेगी। इसी तरह हमें समुद्री सीमा पर भी नौसैनिकों की जरूरत होगी।
दुश्मन के सामने रहने वाली इन सैन्य टुकडिय़ों को कम बोझ वाला, सहज और नेटवर्क से लैस बनाना होगा। उनको हथियारों, मिसाइल और हवाई सहयोग के साथ-साथ लॉजिस्टिक और बुनियादी मदद भी मुहैया करानी होगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सैन्य संतुलन हमारे पक्ष में है। सवाल यह भी उठता है कि अगर 20वीं सदी में हुए युद्घों की तरह बड़े पैमाने पर होने वाले युद्घों के दिन बीत चुके हैं तो फिर सामरिक हथियारबंदी और मोर्चे पर रहने वाली सेना की जरूरत किस आधार पर तय होगी?
अगर प्रधानमंत्री को हमारी रक्षा नीति पर नए सिरे से नजर डालनी हो तो इसमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि यदि देश की अर्थव्यवस्था में विकास के बीच सैनिकों के रखरखाव की बढ़ती लागत के कारण उनकी संख्या कम करनी हो तो सेना के आधुनिकीकरण की राह पूंजी आधारित होनी चाहिए। कार्मिक नीति कुछ ऐसी होनी चाहिए कि सैनिकों की उत्पादकता बढ़ाने में लगातार निवेश हो। इसके लिए उनको बेहतर प्रशिक्षण दिया जाए, बेहतर उपकरण मुहैया कराए जाएं तथा उनकी स्वास्थ्य और सुरक्षा का ध्यान रखा जाए। ये तमाम फैसले अभी करने होंगे क्योंकि उनके प्रभाव को सामने आने में भी वक्त लगेगा।
आइजनहावर को अवसर की लागत की समझ थी। उन्होंने संघीय व्यय का आधा हिस्सा रक्षा क्षेत्र के लिए आवंटित किया लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि हर बनने वाली बंदूक, हर युद्घपोत, हर दागा गया रॉकेट दरअसल उन लोगों के हिस्से के धन का है जो भूखे हैं और जिनको भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा, जो ठंड में ठिठुर रहे हैं और जिनके पास पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं। यह खर्च उचित था क्योंकि सशस्त्र बलों ने न केवल एक इलाके और उसके लोगों की रक्षा की बल्कि उन्होंने एक जीवनशैली को भी बचाया। बतौर राष्टï्रपति उनका काम था सेना प्रमुखों को यह अहसास कराना कि उनका कद और समझदारी ऐसी है और उनको ऐसा प्रशिक्षण मिला है कि वे युद्घ की महंगी कार्रवाई में न्यूनतम की जरूरत और देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति के बीच संतुलन कायम कर सकें। आज के भारत के संदर्भ में भी आइजनहावर की बातें उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि वे छह दशक पहले अमेरिका के बारे में थीं।
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